साहित्य

नागार्जुन जन्मदिन 30 जून पर विशेष ….बेधड़क ,बेवाक बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कहने और लिखने वाले कवियों में एक श्रद्धा और सम्मान भरा नाम है बाबा नागार्जुन

*नागार्जुन जन्मतिथि 30 जून पर विशेष

साहित्य , समाज को संवारने और गढ़ने का एक सशक्त माध्यम है।

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे, भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुँचो, मेवा-मिसरी पाओगे ! माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का, हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का।।

छुट्टा घूमें डाकू गुण्डे, छुट्टा घूमें हत्यारे, देखो, हण्टर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे ! जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा, काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा !

-बाबा नागार्जुन

—————–गणेश कछवाहा ——-
साहित्य , समाज को संवारने और गढ़ने का एक सशक्त माध्यम है। जैसा समाज है वैसा साहित्य में बेखौफ चित्रित होता है ।इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण भी माना जाता है। साहित्य,कला और संस्कृति किसी भी राष्ट्र या समाज के चरित्र,आचरण,सभ्यता,संस्कार व आदर्श मूल्यों का प्रतिबिंब होता है। यही कारण है कि साहित्यकार अपने समय, काल और परिस्थितियों के आधार पर निडर, निर्भीक,निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से सत्य का आसरा लेकर अपने हृदय के उद्गार को समाज के सामने रखता है।ताकि समाज या राष्ट्र उसका विश्लेषण करके सही दिशा में समृद्ध , खुशहाल और मजबूत तरीके से आगे बढ़ सके।

साहित्य ,राजनीति,समाज, खेत – खलिहान, जीवन की विसंगतियों,अत्याचार, अन्याय ,दमन और शोषण के खिलाफ अपनी मिट्टी को तलाशते ,बेधड़क ,बेवाक बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कहने और लिखने वाले कवियों में एक श्रद्धा और सम्मान भरा नाम है बाबा नागार्जुन। बस इतना नाम ही काफी है। वे स्वयं कहते हैं –
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊ, जनकवि हूँ मैं, साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं।

सीधी,सच्ची बात और आत्मा की आवाज सदैव कालजयी हो उठती है,वह सीधे हृदय तक पहुंचती है।वायुमंडल को झकझोर देती है।बाबा नागार्जुन की रचनाएं आज भी प्रासंगिक है।राजनीति,सामाजिक व्यवस्था और जीवन की विसंगतियों पर बहुत सख्ती से हस्तक्षेप करती हैं।उनका फक्कड़पन और फक्कड़ शैली साहित्य में एक विशेष स्थान पर पहुंचा देती है।
देश को आजाद हुए लगभग 05 वर्ष हुए थे ।देश प्रारंभिक बहुत सी गंभीर व जटिल परिस्थितियों से गुजर रहा था ।बाबा नागार्जुन ने तब जीवन की विसंगतियों पर सत्ता को आइना दिखाते हुए लिख रहे थे –
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।।
-1952

बाबा सत्यता को पूरी निर्भीकता से रखते थे —
सच न बोलना

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुँचो, मेवा-मिसरी पाओगे !
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का !!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुँह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा !
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहाँ कहीं !

मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डण्डपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को !
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बाँस दिखा !
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा !

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है !
बन्द सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे ।

ख़याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका !
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे !
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे !

ज़मींदार है, साहूकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अन्दर-अन्दर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है !
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मन्दिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर !

छुट्टा घूमें डाकू गुण्डे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हण्टर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे !
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा !

माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं !
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं !
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,

ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है !

आपातकाल पर बाबा की कुछ पंक्तियां जो आज भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है –
मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे:-

ख़ूब तनी हो, ख़ूब अड़ी हो, ख़ूब लड़ी हो
प्रजातंत्र को कौन पूछता, तुम्हीं बड़ी हो

डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा

तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो

मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में

यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी
आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी
लाभ-लोभ की पुतली हो, छलिया माई हो
मस्तानों की माँ हो, गुण्डों की धाई हो

सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है प्रबल पिटाई
सुदृढ़ प्रशासन का मतलब है ‘इन्द्रा’ माई
बन्दूकें ही हुईं आज माध्यम शासन का
गोली ही पर्याय बन गई है राशन का

शिक्षा केन्द्र बनेंगे अब तो फौजी अड्डे
हुकुम चलाएँगे ताशों के तीन तिगड्डे
बेगम होगी, इर्द-गिर्द बस गूल्लू होंगे

मोर न होगा, हंस न होगा, उल्लू होंगे

सत्य को लकवा मार गया है।

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह,
स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!


बाबा ने बहुत यायावरी जीवन व्यतीत किया।जीवन को बहुत नजदीक से देखा।सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं की विसंगतियों को हर वक्त उधेड़ कर रख दिया।-

“नाहक ही डर गई, हुज़ूर -“
भुक्खड़ के हाथों में यह बन्दूक कहाँ से आई
एस० डी० ओ० की गुड़िया बीबी सपने में घिघियाई

बच्चे जागे, नौकर जागा, आया आई पास
साहेब थे बाहर, घर में बीमार पड़ी थी सास

नौकर ने समझाया, नाहक ही डर गई हुज़ूर !

वह अकाल वाला थाना, पड़ता है काफ़ी दूर !

बाबा की अधिकांश रचना आम लोगों के जीवन सरोकार से जुड़ी हुई थी । उसमें राजनीति का क्या प्रभाव पड़ रहा था उन सब पूरी जिम्मेदारी के साथ उन्होंने बेवाक ,बेखौफ और बहुत ही साफ शब्दों में लिखा। वहीं सियासत ने भी बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया।उन्होंने उस दौर के किसी भी साहित्यकार ,कवि या लेखक पर नकारात्मक या राजसत्ता का दुरूपयोग करते हुए कोई दमनात्मक कार्यवाही नहीं की बल्कि उन्हें यथायोग्य सम्मानित किया गया।

नागार्जुन के काव्य को समझने के क्रम में उनके जीवन को समझना कुछ हद तक सहायक हो सकता है। नागार्जुन जीवन भर अन्याय, दरिद्रता, भूख और अभावग्रस्तता जैसी चीज़ों से लड़ते रहे। अपने जीवन में उन्होंने ख़ूब यात्राएँ की- बौद्ध भिक्षु के रूप में श्रीलंका तक गए। मार्क्सवादी पार्टी एवं प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े। कई बार जेल भी गये। उनके जीवन की इस अभावग्रस्तता, यात्रीपने एवं बौद्ध तथा मार्क्स की विचारों की छाया को उनके काव्य में भी दूर तक देखा जा सकता है।

संक्षिप्त जीवन वृत्त –
बाबा नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम ‘ठक्कन मिसर’ था। ” पाँचवीं संतान थे।लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण माता पिता के मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे ‘ठक्कन’ कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।”
पिता श्री गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी।सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो जमीन बेच बेच कर जीवन यापन करने लगे। जीवन के अंतिम समय में पुत्र वैद्यनाथ मिश्र के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।

परिस्थितियों ने उन्हें बखूबी गढ़ा –
जीवन काफी संघर्ष पूर्ण रहा।जिसने एक जमीन से जुड़े यथार्थ वादी कवि को केवल जन्म ही नहीं दिया बल्कि परिस्थितियों ने उन्हें बखूबी गढ़ा भी।
बनारस में शिक्षा ग्रहण के दौरान उनका बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। लंका के विख्यात ‘विद्यालंकार परिवेण’ में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल सांकृत्यायन और नागार्जुन ‘गुरु भाई’ हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। 1938 ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये। फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे।

जेपी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी-
अप्रैल 1974 में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था “सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।”और इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।

लेखन-कार्य एवं प्रकाशन-
नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने ‘वैदेह’ उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन्1936 में सिंहल में ‘विद्यालंकार परिवेण’ में ही ‘नागार्जुन’ नाम ग्रहण किया।आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी ‘यात्री’ के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर 1941 ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।

नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो 1929 ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित ‘मिथिला’ नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना ‘राम के प्रति’ नामक कविता थी जो 1934ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘विश्वबन्धु’ में छपी थी।

नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य — सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बांग्ला से भी वे जुड़े रहे। बांग्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बांग्ला साहित्य को मूल बांग्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बांग्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग 50कविताएँ लिखी जा चुकी थीं।कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बांग्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और ‘मेघदूत’ प्रिय पुस्तक। मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने 1953 ई० में किया था। जयदेव के ‘गीत गोविंद’ का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे। वस्तुतः1944 और 1954 ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ का गुजराती से हिंदी में अनुवाद 1945ई० में किया था। 1965 ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की ‘पुरुष-परीक्षा’ (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो ‘विद्यापति की कहानियाँ’ नाम से 1964 ई० में प्रकाशित हुई थी।

प्रकाशित कृतियाँ-
कविता-संग्रह-
युगधारा -1953,सतरंगे पंखों वाली -1959,प्यासी पथराई आँखें -1962,तालाब की मछलियाँ-1974,तुमने कहा था -1980,खिचड़ी विप्लव देखा हमने -1980,हजार-हजार बाँहों वाली -1981,पुरानी जूतियों का कोरस -1983,रत्नगर्भ -1984,ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -2985,आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -1986,इस गुब्बारे की छाया में -1990,भूल जाओ पुराने सपने -1994,अपने खेत में -1997

प्रबंध काव्य-
भस्मांकुर -1970,भूमिजा

उपन्यास –
रतिनाथ की चाची -1948,बलचनमा -1952,नयी पौध -1953,बाबा बटेसरनाथ -1954,वरुण के बेटे -1956 -57,
दुखमोचन -1956 -1957,कुंभीपाक -1960 (1972 में ‘चम्पा’ नाम से भी प्रकाशित),हीरक जयन्ती -1962 (1979 में ‘अभिनन्दन’ नाम से भी प्रकाशित)
उग्रतारा -1963,जमनिया का बाबा -1968 (इसी वर्ष ‘इमरतिया’ नाम से भी प्रकाशित),गरीबदास -1990 (1979 में लिखित)

संस्मरण-
एक व्यक्ति: एक युग -1963

कहानी संग्रह –
आसमान में चन्दा तैरे -1982

आलेख संग्रह-
अन्नहीनम् क्रियाहीनम् -1983,बम्भोलेनाथ -1987

बाल साहित्य-
कथा मंजरी भाग-1 -1958
कथा मंजरी भाग-2 –
मर्यादा पुरुषोत्तम राम -1955(बाद में ‘भगवान राम’ के नाम से तथा अब ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के नाम से प्रकाशित)
विद्यापति की कहानियाँ -1964

मैथिली रचनाएँ-
चित्रा (कविता-संग्रह) -1949,पत्रहीन नग्न गाछ -1967,
पका है यह कटहल -1995, (‘चित्रा’ एवं ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ की सभी कविताओं के साथ 52 असंकलित मैथिली कविताएँ हिंदी पद्यानुवाद सहित)

पारो (उपन्यास) -1946,नवतुरिया -1954
बांग्ला रचनाएँ-
मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा -१९९७ (देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद)

संचयन एवं समग्र-
नागार्जुन रचना संचयन – सं०-राजेश जोशी (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से),नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ -तीन खण्ड (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से),नागार्जुन रचनावली -2003, सात खण्डों में, सं० शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)।

पुरस्कार-
साहित्य अकादमी पुरस्कार -1969 (मैथिली में, ‘पत्र हीन नग्न गाछ’ के लिए)
भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा)
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा)
राजेन्द्र शिखर सम्मान -1994 (बिहार सरकार द्वारा)
साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित
राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार सेे
हिन्दी अकादमी पुरस्कारआदि।

बाबा नागार्जुन ने बहुत घुमा,यायावरी जीवन व्यतीत किया,जीवन को बहुत नजदीक से देखा और बहुत लिखा।पुरस्कार,सम्मान,अलंकरण ये सब उनकी प्रतिभा के सामने बहुत छोटे हो गए थे। वस्तुतः उनके सम्मान से उन सम्मानों व संस्थाओं की प्रतिष्ठा,विश्वसनीयता और गरिमा बढ़ती थी।बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियां राष्ट्र को समर्पित करते हुए उन्हें सादर नमन करता हूं।

“युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग

पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात।।”

सादर नमन।

गणेश कछवाहा,
रायगढ़ छत्तीसगढ़।
gp.kachhwaha@gmail.com
9425572284

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