रायगढ़ बारूद के ढेर में ही है, अब बारूद फ़ैक्टरी से चिंता भी जनता को है, सरकार को नहीं । आख़िर क्यों ?

जब जीवन ही नहीं बचेगा तो हम तमाम तथाकथित भौतिक विकास का क्या करेंगे ?
शरद पूर्णिमा की खीर में अमृत पीयूष की बूँदों की जगह ज़हर रूपी काले काले राख के कण गिरते हैं
प्राकृतिक ऑक्सीजन जोन खत्म कर कृत्रिम ऑक्सीजन जोन बनाना अपने आपको धोखा देना नहीं है ?
जनतंत्र में सरकार को बजारवाद की नहीं जनवाद की पक्षधर होनी चाहिये
——- गणेश कछवाहा ——
रायगढ़ के घरघोड़ा ब्लॉक में बारूद की फ़ैक्टरी खोलने का विरोध स्थानीय ग्रामीण जन सहित सामाजिक कार्यकर्ता , पर्यावरणविद्, मानवाधिकार कार्यकर्ता,और जीवजगत से प्यार करने वाले प्रबुद्धजन वैज्ञानिक तथ्यों व तर्कों के साथ ग़हरी चिंता के साथ तीव्र विरोध कर रहे हैं।जनप्रतिनिधि व सरकार मौन है,स्वीकृति तो सरकार ने ही दी है। शायद ऐसे में शासन का साथ देना प्रशासन की भी संवैधानिक,प्रशासनिक व नैतिक विवशता है।खबर है कि ग्रामीणों की समस्यायों को सुनने, उनके ज्ञापन पत्र को लेने कोई एसडीएम स्तर तक का प्रशासनिक अधिकारी नहीं मिला।जबकि हमारे द्वारा चुने हुए प्रतिनिधी होने के नाते विधायक व सांसद को ग्रामीणों का नेतृत्व करते हुए प्रशासन के पास जाना चाहिए था।कोई भी जनप्रतिनिधी विधायक,सांसद, विकास का विज़न देखने वाले युवा (पूर्व आइएएस) पर्यावरण मंत्री तथा उस क्षेत्र के लगभग 20 वर्ष तक सांसद रहे वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं कोई भी जनता के पक्ष में दिखायी नहीं पड़ रहे हैं।आख़िर क्यों ? शासन व प्रशासन को जनता की आवाज़ उसके दुःख दर्द व पीड़ा को पूरी सहानुभूति पूर्वक सुननी चाहिए। जनतंत्र में जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार में इतनी नैतिकता तो बची रहनी चाहिए ।
जब जीवन ही नहीं बचेगा तो हम तथकथित तमाम भौतिक विकास का क्या करेंगे ?
सवाल यह उठता है कि सबकुछ जानने के बावजूद स्वीकृति क्यों दी ? क्या पैसा ( पूँजी) ही राजनीति का मूल चरित्र हो गया है। मानव जीवन,आदर्श, नैतिक मूल्य,सभ्यता और संस्कृति सब गौण हो गए? या समय चक्र में शब्दकोश के अर्थ ही बदल गए।जब मानव जीवन ही नहीं बचेगा तो हम तमाम तथाकथित भौतिक विकास का क्या करेंगे ? और अब तो सवाल केवल मानव जीवन का ही नहीं पूरे समूचे प्राणी जगत – जीव जगत को बचाने का है ।वैज्ञानिक, सामाजिक एवं मानव अधिकार कार्यकर्ता सदैव चिंता व्यक्त करते हुए आगाह कर रहे हैं पूँजी की होड़ में प्राकृतिक व खनिज संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से पूरी सृष्टि ही ख़तरे में है।इसके बावजूद स्थिति बड़ी विपरीत दिखलायी पड़ रही है। सरकार या मुख्य अगुआ ज़िम्मेदार लोगों को जहां मुख्य भूमिका निभानी चाहिए वहाँ वे उदासीन तथा पूँजी ख़तरनाक खेल में शामिल नज़र आते हैं और पीड़ित जनता कहरा रही है ,आवाज़ उठा रही है। इसपर भी उन्हें विकास विरोधी देशद्रोही तक बताकर दंडित किया जा रहा है। आख़िर हम कैसा समाज,राज्य व राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं? विचारणीय व चिंतनीय है ?अहम सवाल यह है कि जब जीवन ही नहीं बचेगा तो हम तमाम तथाकथित भौतिक विकास का क्या करेंगे ?
शायद यह वर्तमान राजनैतिक चरित्र है,जिसमें मानव मूल्य नहीं पूँजी की प्रधानता है।
सन 1990 में उद्योग की नींव पड़ी । अंधाधुंध अद्योगिक विकास से जहां जल जंगल और ज़मीन की खुली लूट अद्योगिक अधिनियमों शासकीय नियम क़ानूनों की अवहेलना, स्थानीय जनजीवन प्रभावित होना आदि विषमताओं के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , पूर्व विधायक, जननायक रामकुमार अग्रवाल के नेतृत्व में संघर्ष की आवाज़ बुलंद की गई ,लड़ते रहे और लड़ते लड़ते सन 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण हुआ । रायगढ़ कला संस्कृति की राजधानी से लोह इस्पात की नगरी फिर विद्युत हब , कालेहीरे (कोयले)की खान और उद्योग नगरी से होते हुए प्रदूषण के ख़तरनाक ज़ोन , कालिख कलंक ,बारूद की ढेर में बसा शहर की संज्ञा के संघर्ष भरी यात्रा से गुज़रते हुए 35 वर्ष हो गए केलो के जल को बचाने के जनांदोलन में सन1998 में आदिवासी महिला सत्यभामा सौरां शहीद हो गई।पर किसी भी सरकार ने कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया । पर्यावरण प्रदूषण ( जल एवं वायु) की स्थिति बद से बदतर होती गयी।नेशनल ग्रीन ट्रयुबनल (एनजीटी), सेंट्रल पाल्यूशन कंट्रोल बोर्ड,आइआइटी,अन्य संस्थाओ, समितियों चिकित्सकों तथा समाचारपत्रों,मीडिया की रिपोर्ट ने भी समय समय प्रदूषण की गम्भीरता और ख़तरनाक पहलुओं से सरकार को अवगत कराया है। जनता से ज़्यादा सरकार को जानकारी है।तमाम रिपोर्ट,डेटा,जनजीवन पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव,सब कुछ सरकार के पास है।खुली आँखों से पूरा मंजर देखा जा सकता है।कलेक्ट्रेट आते आते विशाल केलो का प्रवाह एक संकरे गंदे नाले में तब्दील होते सबदेख रहे हैं।छतों,घर के कमरों, पेड़ पौधों, नदीतालाब , जलाशयों, जलस्त्रोतों में काली काली राख की परतें, लोगों की खांसी कफ़ में काले काले कण,सीने में राख की परतें चिकित्सकों कीरिपोर्ट बहुत गंभीर चेतावनी देरहीं हैं अब तो शरद पूर्णिमा की रात खीर में अमृत पीयूष की बूँदों की जगह ज़हरीले काले काले राख के कण गिरते हैं । माननीय पर्यावरणमंत्री और मुख्यमंत्री तो इसी माटी में जन्मे पढ़े लिखे खेले -कूदे और नेतृत्व किए हुए हैं।इन सबके के बावजूद यदि मानवता,जनजीवन को बचाने का निर्णय नहीं ले पा रहे हैं तो यह बहुत बड़ी राजनैतिक विवशता को ही दर्शाता है।शायद यह वर्तमान राजनैतिक चरित्र है,जिसमें मानव मूल्य नहीं पूँजी की प्रधानता है।
जनतंत्र में सरकार को बजारवाद की नहीं जनवाद की पक्षधर होनी चाहिये
बारूद फैक्ट्री स्थापना के लिए जहां भारी घने जंगलों पेड़ पौधों की कटाई से पर्यावरण संतुलन खराब होगा प्राकृतिक ऑक्सीजन जोन खत्म होगा वहीं फैक्टरी के अपशिष्ट और ख़तरनाक रसायन से प्रदूषण खतरनाक स्तर पर और अधिक खतरनाक होगा। दूसरी तरफ पशु पक्षियों और जंगली जानवरों के रहने का ठिकाना भी उजड़ जाएगा,खत्म हो जाएगा । अब वे गांव शहर की ओर नहीं जाएंगे तो कहां जाएंगे ? यह गांव शहर के लिए एक बड़ी समस्या बनती जा रही है।प्राकृतिक ऑक्सीजन जोन खत्म कर कितने और कहां कहां किस वर्ग के हित के लिए कृत्रिम ऑक्सीजन जोन बनाये जाएंगे? क्या कृत्रिम ऑक्सीजन जोन बनाना अपने आपको धोखा देना नहीं है ? सबके लिए समान रूप से जल, वायु, प्रकाश प्रकृति द्वारा संपूर्ण जीवजगत के लिए निः शुल्क अमूल्य देन है। क्या इन्हें भी बाजारवाद का हिस्सा बना दिया जाएगा? क्या जल की तरह शुद्ध वायु भी खरीदने के लिए विवश होना पड़ेगा? इसके संरक्षण की जिम्मेदारी जवाबदेही किसकी है? सरकार इस अहम जिम्मेदारी व जवाबदेही से पीछे नहीं हट सकती है।बजारवाद बहुत निर्दयी होता है, उसका एक मात्र लक्ष्य होता है येनकेन लाभ ( पूँजी) कमाना। जनतंत्र में सरकार को बजारवाद की नहीं जनवाद की पक्षधर होनी चाहिये।
गणेश कछवाहा
लेखक,चिंतक एवं समीक्षक
जिला बचाओ संघर्ष मोर्चा
रायगढ़, छत्तीसगढ़।
94255 72284
gp.kachhwaha@gmail.com